आदिवासी जीवन, लोकविश्वास और परंपराएं

आदिवासी जीवन, लोकविश्वास और परंपराएं। शोध सारांश -- आदिवासी जीवन से संबंधित किसी भी विषय पर, उनसे जुड़े किसी भी पहलू पर बात करने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि आदिवासी हैं कौन? उनकी पहचान क्या है? उनका जीवन, उनकी मान्यताएं ,उनकी परंपराएं ,उनकी आस्था, विश्वास, उनकी शिक्षा उनकी मातृभाषा, सभ्यता एवं संस्कृति आदि क्या है? या क्या रही होंगी ? इन सब के बारे में एक दृष्टिपात करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इन सब की जानकारी के बिना आदिवासी जीवन से संबंधित किसी भी बिंदु पर हम अपने विचारों के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। परिचय "आदिवासी" नाम से ही स्पष्ट है कि वे लोग जो इस धरती पर अनादि काल से विचर रहे हैं। ये प्राकृतिक मानव जा सकते हैं जो पूर्णतया प्रकृति पर ही आश्रित थे तथा आश्रित ही रह रहे हैं । ये समाज 21वीं शताब्दी के ज्ञान, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, शिक्षा ,आदि से अनभिज्ञ हैं।( परंतु धीरे-धीरे सरकार तथा निजी संगठनों की मदद से यह आदिवासी समाज आधुनिक संसार के साथ जुड़ने का प्रयास कर रहा है) यदि वास्तव में देखा जाए तो आदिवासी समाज ही है जो हमारी प्रकृति का, प्राकृतिक संपदा तथा संसाधनों का सच्चे अर्थों में नि:स्वार्थ रक्षण कर रहा है। आदिवासी समाज बहुत लंबे समय तक अपनी ही दुनिया में स्वायत्त और स्वावलंबी जीवन जीता रहा है। उसके पीछे उसकी अस्मिता और आत्म सम्मान की परंपरा रही है। परंतु परिवर्तन प्रकृति का अकाट्य नियम है। इसलिए आदिवासी समाज के उत्थान के लिए किए गए आरक्षण जैसे विशेष प्रावधानों का मुद्दा सीधे रूप से आदिवासी अस्मिता, सम्मान ,संस्कृति और विकास से संबंध रखता है ,और आदिवासी समाज को 21वीं सदी के समय तक पहुंचने के लिए अभी और बहुत सा समय लग सकता है, क्योंकि उनका जीवन प्राकृतिक साधनों पर आश्रित है जिनका दोहन हम अपने उत्थान के लिए निरंतर करते ही जा रहे हैं। आदिवासी लोक विश्वास और परंपराओं पर प्रस्तुत शोध पत्र में विस्तार से चिंतन,मनन किया गया है तथा प्रयास किया गया है कि इस विषय से संबंधित कोई भी पहलू अछूता न रहे। कीवर्ड्स--- संस्कृति, प्रावधान, उत्थान, अकाट्य, संपदा, स्वावलंबी, संसाधन, आत्मसम्मान, दृष्टिपात, स्वावलंबी, चिंतन।   आदिवासी समुदाय की पृष्ठभूमि आधुनिक जातियों के समानांतर आदिवासी जनजातीय समाज और उसकी संस्कृति भी बहुत पुरानी है। मुंडा जनजाति के भूमिज लोगों ने सिंहभूम- वराहभूम के इलाके में भूमिज राज कायम किया था।”  छोटानागपुर में पाए जाने वाले अनेक असुर स्थलों पर प्राप्त पुरातात्त्विक वस्तुओं के आधार पर यह कहा जाता है की सांस्कृतिक दृष्टि से छोटानागपुर उतना ही प्राचीन है, जितनी सिन्धु घाटी की सभ्यता। फिर भी साधारणत: बिहार का और विशेषकर छोटानागपुर का प्रारंम्भिक सांस्कृतिक इतिहास रहस्य के आवरण में ढका हुआ है। इसलिए इस क्षेत्र का इतिहास मुख्यत: वैदिक पौराणिक, जैन तथा बौद्ध साहित्य के छिटपुट अवलोकन, पुरातात्त्विक वस्तुओं के अध्ययन एवं क्षेत्रीय लोकसाहित्य और दंतकथाओं के विश्लेष्ण के आधार पर ही तैयार किया जा सकता है।.... ऐसा अनुमान किया जाता है कि संथाल, मुंडा जाति के लोग इस क्षेत्र में ईसाई युग शुरू होने से पहले ही आकर बसने लगे होंगे। असुर संस्कृति के बारे मे यह कहा जा सकता है कि यह संस्कृति कम-से- कम कुषाण काल तक (लगभग 70 से 150 ई. सन) तो थी ही जैसा कि दो असुर स्थलों पर पाए जाने वाले कुषाण सिक्कों से पता चलता है। आदिवासी समुदाय , ऐतिहासिक पहलू “मानव वैज्ञानिक का एक समुदाय भारत को जनजातीय और गैरजनजातीय सांस्कृतियों के विलगाव और असम्बद्धता पर  इतना अधिक बल देता रहा है कि आज हम उनको एकदम भिन्न मानने लगे हैं। लेकिन ऐतिहासिक संदर्भ में विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि ये उतनी भिन्न और असम्बद्ध नहीं हैं जितनी समझी और समझायी जाती हैं। बहुत सी जनजातियाँ हिन्दू समाज की जातियों में बदल गई हैं और बहुत सारी सांस्कृतिक विशेषताएँ उसकी सामान्य संस्कृति के अभिलक्षण बन गई हैं। जहाँ उनका स्थानांतरण जातियों में नहीं हुआ है, वहाँ भी गैरजनजातियों समुदायों से उनका सम्पर्क बना रहा है। यह जरूरी नहीं कि जो जनजातियाँ आज गैरजनजातियों साथ या समीप न रहकर उनसे दूर और अलग रही हैं, वे अतीत में उनके साथ या निकट नहीं रहती थीं। उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार वे बहुत – से भारतीय प्रदेशों में शताब्दियों से लगभग एक परिमती भौगोलिक क्षेत्र में निवास करती रही हैं तो भारत के एक सीमांत से दूसरे सीमांत तक उनका आव्रजन ही हुआ है। प्रत्येक स्थिति में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक बाध्यताओं के कारण, वे गैरजनजातीय समुदायों के सम्पर्क में आती रही हैं। यही नहीं उनका एक उल्लेख भाग गैरजनजातीय लोगों के साथ गांवों में निवास करता रहा है। आदिवासी जीवन में प्रकृति का महत्व प्रकृति और मनुष्य के बीच अन्योन्याश्रय संबंध है। प्रकृति के बिना मानवीय अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती न मानव रहित सृष्टि का कोई अर्थ हो सकता है। प्रकृति का तात्पर्य समस्त भौतिक अस्तित्व से है। मनुष्य भी प्रकृति, मनुष्य के बाह्य एवं आन्तरिक स्थिति का दर्पण है। दोनों के बीच इतना गहरा संबंध है कि किसी प्रकार का बाह्य असंतुलन मनुष्य के आन्तरिक (मानसिक-आत्मिक) समीकरण को प्रभावित किये बिना नहीं रहता। मनुष्य के वैयक्तिक और सामूहिक संबंधों में आया बिखराव संतुलन का बिगाड़ देता है। प्रस्तुत है आदिवासी जीवन आज के युग में भी प्रकृति का प्रतिनिधित्व पूरी तरह से कर रहा है जो हम सबके लिए एक उदाहरण है। आदिवासी जीवनशैली आदिवासियों का जीवन तथा उनकी जीवन शैली पूर्णतया प्रकृति पर आश्रित होती है । यह पूर्णतया प्रकृति मानव कहे जा सकते हैं जो प्रकृति के साथ सोते - जागते हैं । यानी सूर्योदय के साथ इनका दिन प्रारंभ होता है तथा सूर्यास्त के साथ प्रायः खत्म। आजकल की महानगरीय जिंदगी की तरह नहीं कि जो रात्रि जागरण करते हैं और ब्रह्म मुहूर्त में सोने जाते हैं। इनका खानपान भी लगभग प्रकृति पर ही निर्भर करता है। आधुनिक व्यंजनों फास्ट फूड, जंक फूड से ये लोग कोसों दूर है । यह अपना श्रृंगार तथा अपने शरीर पर जो भी पदार्थ या वस्तु का उपयोग करते हैं वह भी पूर्णतया प्रकृति पर ही आधारित होती है जैसे पुष्प का श्रृंगार, विभिन्न प्रकार की सुगंध , विभिन्न प्रकार के लेप आदि। बीमार पड़ने पर यह विभिन्न प्रकार के फूल पत्तियों तथा उनसे तैयार औषधियों के द्वाकिरा ही अपनाआ इलाज करते हैं तथा पुनः स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेते हैं तथा अपना जीवन स्वस्थ बनाए रखते हैं। आदिवासी समाज में अनुशासन तथा सत्ता आदिवासी प्रजातियों में कहीं पुरुष सत्तात्मक समाज की बहुलता है तो कहीं मातृसत्तात्मक समाज को भी बराबरी का स्थान दिया गया है। नारी सशक्तिकरण का जीवंत प्रमाण। कहीं-कहीं वंशानुगात परंपरा का चलन है तो कहीं सत्ता गुणों व चुनाव पर भी आधारित है। यानी आधुनिक समाज का पूरा प्रतिबिंब देखने को मिलता है । जैसे ब्रिटेन में वंशानुगत राजवंश है जबकि भारत तथा अन्य कई देशों में सत्ता प्रजा के चुनाव पर आधारित है। आदिवासी अलौकिक शक्तियां, आराध्य देव किसी भी समाज की धार्मिक परंपराएं, रीति रिवाज उस समाज का प्राण कहे जा सकते हैं। आदिवासी समाज में धार्मिक भावनाओं को बहुत अधिक स्थान दिया जाता है। शिव उनके आराध्य देव हैं । इसके अतिरिक्त सूर्य देवता, चंद्रमा तथा सप्त ऋषि तारामंडल की भी पूजा अर्चना की जाती है। वह जानते हैं कि सूर्य के बिना पृथ्वी का संवर्धन संभव नहीं है । पेड़ पौधों का जीवन तभी संभव है जब हवा, पानी और सूर्य की उपस्थिति रहेगी। इसलिए वे पानी के स्रोतों की भी विभिन्न अवसरों पर पूजा करते हैं । आदिवासी त्योहार इनके लगभग सभी त्योहार प्रकृति के साथ ही संबंधित है जैसे करमा, सरहुल,जतरा, जदूर, आदि । ऐसे त्यौहार हैं जो चैत्र मास में मनाए जाते हैं , जब हमारा हिंदू नव वर्ष प्रारंभ होता है। यानी प्रकृति जब अपने यौवन पर होती है। हर तरफ नव अंकुरण, नव पल्लवों का, नए अनाज का भरपूर सम्मिश्रण होता है ।इसी के साथ मौसम भी ना ज्यादा ठंडा और ना ही ज्यादा गर्म होता है यानी मार्च या अप्रैल का महीना। वास्तव में देखा जाए तो ये लोग हमारी पौराणिक मान्यताओं को जीवंत किए हुए हैं। आज हम आधुनिकता की दौड़ में इतने आगे निकल गए हैं कि पश्चिमीकरण के रंग में रंगने को पूर्णतया तैयार हैं । हमारे आने वाली पीढ़ी हमारी पौराणिक, धार्मिक, सामाजिक परंपराओं, रीति रिवाजों से बिल्कुल दूर होती जा रही है, प्रकृति से दूर होती जा रही है। केवल आधुनिक उपकरणों के ही जाल में फंसती जा रही है । कोयल की आवाज, पक्षियों का कलरव, प्रकृति का सानिध्य वह केवल बनावटी देख पाते हैं । वास्तविकता का आनंद तो शायद ही ले पाते हैं । इसलिए शारीरिक ,मानसिक भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक स्तर पर अशांत और असंतोष, क्रोध से भरे हुए हैं। हमें आधुनिकता के साथ - साथ प्राकृतिक भी होना चाहिए क्योंकि हम सब का शरीर प्रकृति के साथ ही पंचभूतों से बना है जिसमें अग्नि, वायु ,जल , आकाश और पृथ्वी इन सभी का मिश्रण है। धार्मिक आस्था एवं विश्वास तथा वैचारिक मीमांसा यदि आदिवासी हमारे पौराणिक मूल्यों का, हमारी परंपराओं का पूरी तरह से निर्वहन कर रहे हैं, यह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी विवाह पद्धति, स्त्रियों को वर चुनने का अधिकार (स्वयंवर) , दो या तीन गोत्र छोड़कर विवाह करना( आज विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि एक ही गोत्र में शादी करने से वंशानुगत रोगों के होने की संभावना 95% बढ़ जाती है तथा संतानोत्पत्ति में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ),गुरुकुल परंपरा तथा सभी मांगलिक कार्यों में ईश्वर का धन्यवाद एवं पूजा अर्चना हमें सभी धार्मिक, नैतिक साहित्य की याद दिलाता है। आदिवासी समुदाय की भाषा भारत में सभी आदिवासी समुदायों की अपनी विशिष्ट भाषा है। भाषाविज्ञानियों ने भारत के सभी आदिवासी भाषाओं को मुख्यतः तीन भाषा परिवारों में रखा है। द्रविड़, आस्ट्रिक और चीनी-तिब्बती। लेकिन कुछ आदिवासी भाषाएं भारोपीय भाषा परिवार के अंतर्गत भी आती हैं। आदिवासी भाषाओं में ‘भीली’ बोलने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है जबकि दूसरे नंबर पर ‘गोंडी’ भाषा और तीसरे नंबर पर ‘संताली’ भाषा है। आदिवासी पत्र-पत्रिकाएं जोहार सहिया (आदिवासियों की लोकप्रिय मासिक पत्रिका नागपुरी-सादरी भाषा में)जोहार दिसुम खबर (12 आदिवासी भाषाओं में प्रकाशित भारत का एकमात्र पाक्षिक अखबार)अखड़ा (11 आदिवासी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका)आदिवासी समाज (aadivasisamaj.com) - आदिवासी समाज की सामाजिक वेबसाईट आदिवासी दृष्टिकोण आदिवासी दृष्टिकोण से कोई भी प्राकृतिक प्रकोप जैसे महामारी, बाढ़, अनावृष्टि, आंधी- तूफ़ान मनुष्य द्वारा निष्पादित- कर्त्तव्य की अवहेलना का परिणाम है। सृष्टि के कण- कण में आत्माओं की उपस्थिति पर विश्वास करना आज के वैज्ञानिक युग में बेहद हास्यापद लगता है । किन्तु सभ्य कहलाने वाली मानव जाति ने पर्यावरण संतुलन की घोर अवहेलना करके पृथ्वी को जीव रहित मरूस्थल बनाने का जो कूकर्म किया है यह उससे भी अधिक निंदनीय है। आदिवासी दर्शन सबके लिए एक सबक है। वनों का विनाश, मशीनों, मोटर गाड़ियों, कल- कारख़ानों से निकलता जहरीला रसायन, खनिज पदार्थों का अंतहीन अवैज्ञानिक खनन, विशालकाय बांधों का निर्माण करके मनुष्य, जीव जन्तुओं और वनस्पति का सफाया, सृष्टि की हत्या ही नहीं, सृष्टिकर्त्ता की योजना का भी निरादर निरंतर ही करता चला जा रहा है। यह मानवता के विरूद्ध अक्षमनीय अपराध है। दूसरी ओर आदिवासियों का प्रकृति प्रेम तथा प्रकृति संरक्षण का भाव इतना अधिक है कि मानो हमारा शांति पाठ--- ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:, पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥ ऐसा लगता है मानो आदिवासी संप्रदाय इसका अनुकरण आज भी मन, वचन तथा कर्म से कर रहे हो । निष्कर्ष आदिवासी जीवन पूर्णतया प्रकृति द्वारा पोषित, पल्लवित तथा प्रकृति द्वारा ही संचालित होता है ।यह हम सब के लिए एक सीख है। वर्तमान में दूषित पर्यावरण, उजड़ते जंगलों के कुप्रभावों को देखते हुए समस्त मानवता के सामने स्थित चिंता हम सभी की भी चिंता है। भावी पीढ़ी के लिए स्वच्छ वातावरण, विशुद्ध पर्यावरण दे सकने के लिए आवश्यक है कि आदिवासियों की मौलिक मनोवृति अपनायी जाए। प्रकृति और पर्यावरण को विशुद्ध रखने का नैसर्गिक गुण ही उनकी विरासत है ,उनकी संस्कृतिक पहचान है, उनके आस्तित्व का मूल अवयव है। इस सात्विकत्थ्य को समग्र मानवता की सार्थकता के लिए अनुपम उपहार बना सकें, तो ऋतु पर्वों का शिरोमणि – सरहुल, करमा, जतरा , हम सबके लिए भी नवजीवन, आशा, खुशी, सम्पन्नता, पवित्रता और एकता का त्यौहार बनकर आएगा। इन्हीं शुभकामनाओं एवं इसी आशा के साथ--- लेखिका विदुषी शर्मा शोधकर्ता, सिंघानिया विश्वविद्यालय राजस्थान ग्रंथ अनुक्रमणिका विचार -- 1 डॉ कायपर 2 डॉ प्रमोद चंद्र बागची 3 प्रोफेसर सिल्वा नेवी 4 डॉक्टर वीर भगत तलवार 5 डॉ दिनेश्वर प्रसाद 6 प्रोफेसर पिजु लीस्की 7 छोटानागपुर आदिवासी जेवियर समाज संस्थान, रांची 8 झारखंड समाज संस्कृति और विकास 9 पत्र-पत्रिकाएं , आलेख , इंटरनेट साइट्स

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